किनारा
.......किनारा....
किनारे पे आने का दस्तूर शदियों से बना है...
पर हम हमेशा किस किनारे कि बात करते है अपने जीवन में ? समझना थोङ मुसकिल है और इस पर बात करना उससे भी ज्यादा मुसकिल क्योंकि नदी का किनार नजर आता है परन्तु जैसे -जैसे वो विशाल काय होती जाती है खुद को समुंद्र बनाने की चाह में समुंद्र की तरफ बढती चली जाती है और अंत,वो समुंद्र में ही गिर जाती है या ऐ काहा जाये की खुद भी समंदर हो जाती है परन्तु नदी समंदर हो कर अपना किनारा खो देती है , अब बात यहाँ ऐ है कि नदी अपनी पूरी यात्रा में चाहती क्या थी ?
किनार या समंदर बन जाना ?
शायद हम सभी को नदी का किनारे वाला ही रूप पसंद है किवो अपनी एक निश्चित सीमा रेखा में बहती रहे और अपने जल से सब पर परोपकार करती रहे, परंतु क्या यही नदी भी सोचती होगी ?
क्या उसे नदी रहना अच्छा लगता है?
या समंदर में मिल जाना?
क्या हुआ? इन सवालों ने आपको भी परेशान कर दिया!
ये बिलकुल ऐसा ही है जैसे हम अपने जीवन के साथ करते है पहले सब अर्जित करने के लिए भागते है फिर थक कर पाप- पुण्य के लेखा-जोखा करते हुऐ अंत अपनी मृत्यु को प्राप्त होते, ऐसा होने पर भी अलग-अलग लोगो की अलग-अलग बाते होती है पर सच तक किसी की पहुँच नही होती !
....nisha nik''ख्याति''...
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