लेख-छन्द


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आप 'छन्द' शीर्षक देख कर सोच रहे होगें की इस लेख में क्या होगा...
आप ही नही मैं भी ये सोच रही हूँ की इस लेख को सुरू कहाँ से करू...
क्योकि इस लेख में बहुत कुछ आप सभी से साझा करना चाहति हूँ...
हर उस शीर्षक को रखना चाहति हूँ जिन्हे  सुन्दरता के नाम पर छन्द में बांधने की परम्परा चलती आ रही है..
चाहे वो जीव सुन्दरता में स्त्री हो या भाव सुन्दरता में काव्य...
दोनो को ही लोग बंधन में रखना चाहते है और जिसे जो विधा पंसद है उसी छंद में बांध लेना चाहते...
मेरे दिल में अकसर एक सवाल होता है काव्य को लेकर भी और स्त्री को लेकर भी...
पता नही मेरे विचार कितने सही है, मैं किसी के विचारो को चुनौती देने की भावना नही रखती,बस अपने विचारो को स्वेच्छा से कहना चाहति हूँ...
क्या स्त्री और काव्य दोनो ही लोगो के दिलो में पूजित हो इसके लिए उनका छन्द में होना आवश्यक है...
क्या विचारो के प्रवाह और उसकी सलिन्नता का महत्तव नही...
क्या लोगो की मांसिकता इतनी ही है की छन्दमुक्त सब की समझ तो आता है उस में विचारो की सालिन्नता तो है परन्तु सविकारीय नही...
क्यो?
स्त्री सुन्दर हो आज के समाज के तौर तरिके भी जानती हो उसे सलिन्नता के साथ निभाती हो पढी -लिखी हो पर अपनी बहु ऐसी छन्दमुक्त ना हो दूसरे की हो चलेगी क्योकि वो समाज की गीरि हुई मानसिकता पर भी खरी है...
मैं काव्यरस के बारे में ज्यादा नही जानती,परन्तु
स्त्री भावना को जानती हूँ(कृपया पाठक यहाँ विवाद उत्पन्न ना करे क्योकि जिन स्त्रीयों का उदाहरण दे कर वो विवाद उत्पन्न करेंगे उनकी संख्या एक प्रतिशत ही है और ये भी उनकी है जो छन्द का विद्रोह करते-करते भटक गई है और इसका कारण भी मैं समाज को ही मानती हूँ, जो अपने विचारो को स्वेच्छा से रखना चाहती है पर रख नही पाती, हाँ अब वो अपने विचार रखने में कुछ प्रतिशत महिलाए कई बार सफल हो जाती है और हमार समाज उनकी ही दुहाई दे कर कहता रहता है कि हमारे समाजा में स्त्रीयो की हालत सुधर रही है और वास्तविकता से आंख चुरा कर शब्दो के जाल में मुहँ छुपा लेता है...
और आज भी हमारे समाज में(पाठक विवाद उत्पन्न ना करे क्योकि मैं शहरो के सम्पन समाज की नही गांव की बात कर रही हूँ क्योकि भारत आज भी गांव में ही जीवित है और हम शहरो को देख कर अपनी राये बना लेते है)
स्त्रीयो की दशा और दिशा में कुछ खास अच्छा बदलाव नही आया...
जो लोग बदलाव की बात कहते है उन से बस एक सवाल, की क्या वो वास्त्विकता को देखना चाहते है और जिन स्त्रीयो की सफलता की बात कहते है वो समाज, से अपनो से कितनी अवहेलना झेल कर वाँहा पँहुची इसी से आप समाज में स्त्रीयो की वास्त्विक स्थिति को समझ सकते है अगर हम जिस छन्दमुक्त की बात करते है समझते है उसे अपना भी सके तो समाज मेें जिन अच्छे विचार का सिर्फ कहना है उन्हे जिया भी जा सकता है...
और काव्य में अगर शब्दो का संर्घष और सालिन्नता बनी हो तो छन्दमुक्त में भी काव्य का प्रवाह हो सकता है और आसानी से सभी के समझ भी आ सकता है...
ये विचार मेरे है और मैं इसे सही भी मानती हूँ...
मैं परम्पराओ का सम्मान करती हूँ पर जो परम्परा रूढी बनकर पैरो में बेङी बनकर हमारे समाज को आगे बढने से रोक दे ऐसे परम्परओ  से खुद को आजाद करना ही सही है
(पाठक अपने विचार रख सकता है पर मेरे विचारो पे विद्रोह उत्पन्न करने से पहले अपने घर से ही वास्त्विकता को देखने और समझने की कोशिश करे)
.....nisha nik''ख्याति''...






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