कविता- अबला
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एक जिन्दगी को जन्म दे कर
खुद को एक जिन्दगी देती हूँ
दे सके ना, कोई नाम मुझको
वो नाम मैं खुद को देती हूँ
खुद में सम्महित्त कर के
एक मास के लोथङे को, सांसे देती हूँ
खुद के अन्दर समेट कर
एक सृजन के बीज को जिन्दगी देती हूँ
पुरूषोत्तम कर ना सके जिस काम को
जिन्दगी देने का, वो काम मैं करती हूँ
निरस,निर्मम होकर, अबला जो कहते है
देख तुझ से बङा बल का काम करती हूँ
बेसक, तू मुझको हजारों रिस्ते देता है
सबसे बङे रिस्ते का सृजन मैं खुद करती हूँ
दे ना सके, जो रिस्ता तुझे कोई
उस रिस्ते का, सम्मान दिलवाती हूँ
बेसक, तू मुझे मेरी पहचान देता है
वो पहचान देने का हक, तुझे दिलवाती हूँ
अबला कह, मेरे चित्तङे उङाने वाले
पुरूष से पुरषोत्तम तुझे कहलवाती हूँ
....nisha nik(ख्याति)...
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